पारिस्थितिकी तंत्र क्या है?पारिस्थितिकी तंत्र के घटक

ए. जी. टेन्सले (Arthur G. Tansley) ने पारिस्थितिकी तन्त्र को सर्वप्रथम परिभाषित किया था | पारिस्थितिकी तन्त्र मूल रूप से प्रकृति का क्रियात्मक स्वरूप है। किसी भी स्थान पर पौधों, जानवरों एवं पर्यावरण में अगर क्रियात्मक सम्पूर्णता मिलती है तो उसे हम पारिस्थितिकी -तन्त्र (Eco-system) कहते हैं। यह अनन्त छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी हो सकता है |

पारिस्थितिकी तंत्र क्या है ?

वर्तमान में पारिस्थितिक विज्ञानी अध्ययन हेतु पारिस्थितकी -तन्त्र उपागम का प्रयोग किया जाता है जो कि पारिस्थितिक विज्ञान की नवीनतम विधि है। पारिस्थितिक तन्त्र उपागम के अनुसार जीवित प्राणी और उनका अजैविक पर्यावरण अपृथकनीय एवं परस्पर निर्भर है तथा वे परस्पर एक-दूसरे से अन्तः क्रिया करते है।

ए. जी. टेन्सले (A. G. Tansley) ने पारिस्थितिक तन्त्र को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जो कि पर्यावरण के सभी जैविक एवं अजैविक कारकों के एकीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। इस प्रकार पारिस्थितकी -तन्त्र में केवल जीवों की जटिलता को ही नहीं वरन् पर्यावरण का निर्माण करने वाले सभी भौतिक कारकों को भी सम्मिलित किया जाता है। यह जीवों एवं पर्यावरण की एकता पर आधारित है।

पारिस्थितकी तन्त्र में सजीव प्राणी आपस में तथा अपने भौतिक पर्यावरण से ऊर्जा, द्रव्य एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। यह आदान प्रदान आवश्यक है, क्योंकि पृथ्वी पर सजीव प्राणी भौतिक तथा जैविक पृथक्करण (Isolation) में जीवित नहीं रह सकते। प्राणियों को जीवित रहने के लिए आपस में तथा अपने पर्यावरण के भौतिक एवं रासायनिक पदार्थों से अन्त क्रिया करनी पड़ती है, इसे ही पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं।

यह धारणा काफी लम्बे समय से चली आ रही है कि जीवों के जन्म वृद्धि, प्रजनन एवं विस्तार के लिए उन्हें पर्यावरण के अनेक घटकों पर निर्भर रहना पड़ता है। यहां अनेक प्रकार के पौधे, उनके साथ रहने वाले अनेक छोटे-बड़े जानवर, हवा, जीवाणु एवं पर्यावरण को मिलाकर एक अभिन्न तन्त्र की रचना होती है। तन्त्र के किसी भी भाग में परिवर्तन उस समस्त तन्त्र को प्रभावित करता है।

पारिस्थितिकी तन्त्र मूल रूप से प्रकृति का क्रियात्मक स्वरूप है। किसी भी स्थान पर पौधों, जानवरों एवं पर्यावरण में अगर क्रियात्मक सम्पूर्णता मिलती है तो उसे हम पारिस्थितकी -तन्त्र (Eco-system) कहते हैं।

यह अनन्त छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। यहां तक कि एक वृक्ष भी पारिस्थितकी -तन्त्र बना सकता है। वृक्ष सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा को ग्रहण करके मिट्टी तथा हवा से लिए गये अकार्बनिक तत्वों को मिलाकर ऊर्जा से परिपूर्ण रासायनिक पदार्थ बनाते हैं जिससे प्राथमिक उत्पादन होता है।

हमसे वृक्ष पर रहने वाले अनेक पक्षी इसकी छाया में बसेरा पाते हैं और इसके फलों को खाकर अपने शरीर की वृद्धि करते हैं। कुछ अन्य जन्तु इन पक्षियों को भी खाते हैं। इस प्रकार पारिस्थितकी तन्त्र का एक क्रियात्मक गुण ऊर्जा को ग्रहण करके प्राथमिक उत्पादन करना है |

इस ऊर्जा के कुछ भाग पौधों के शरीर वृद्धि अथवा श्वसन में इस्तेमाल करना तथा कुछ भाग को शाकाहारी और मांसाहारी जानवरों तक पहुंचाना है। इस ऊर्जा के साथ रासायनिक अकार्बनिक तत्व भी पर्यावरण से पौधों में और उनके द्वारा शाकाहारी एवं मांसाहारी जीवों में कुछ मात्रा में पहुंचते हैं।

कुछ भाग श्वसन द्वारा पर्यावरण में लौट जाता है और कुछ भाग मृत्योपरान्त मिट्टी में मिल जाता है जो पुनः मिट्टी और वायुमण्डल से जीवधारियों में वापस आ जाता है। इस प्रकार पदार्थ जीव-मण्डल में पर्यावरण और जीवधारियों के बीच चक्रीकरण करते हैं। पारिस्थितिक-तन्त्र बहुधा स्वचालित एवं सन्तुलित होते हैं | 

पारिस्थितकी तंत्र की अवधारणा :

पारिस्थितकी तंत्र की अवधारणा का मुख्य आधार यह है कि प्रकृति के किसी भी क्षेत्र मे पाये जाने वाले जैव समुदाय और अजैव वातावरण के बीच पदार्थों का निरंतर निर्माण एवं विनियम होता रहता है। जीव पदार्थों को ग्रहण कर अपने शरीर की वृद्धि करते है और कार्बनिक पदार्थों का निर्माण करते है तथा पुनः इन कार्बनिक पदार्थों का विखंडन कर उन्हें अकार्बनिक पदार्थों मे रूपान्तरित कर देते है। इस प्रकार पदार्थों के तंत्र मे चक्रीकरण होता रहता है।

परिस्थतिक तंत्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1935 मे ए. जी. टान्सले ने इसकी परिभाषा देते हुए किया ” पारिस्थितिक तंत्र जैविक और अजैविक पदार्थों की परस्पर प्राकृतिक क्रिया है जिसमे जैव पदार्थ, अजैव पदार्थ के साथ पर्यावरण के संपूर्ण कारक सम्मिलित है, जो एक अंत: क्रियात्मक संबंधो से जुड़े है।”

पारिस्थितिकी तंत्र के घटक (Paristhitik tantra ke ghatak)

हर पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना दो तरह के घटकों से होती है-

(अ) जीवीय घटक तथा

(ब) अजैविक घटक जैविक घटक दो प्रकार के होते हैं –

1.स्वपोषित अंश तथा

2. परपोषित अंश

कार्यात्मक द्रष्टिकोण से जैविकी घटक को तीन भागो मे बांटा जा सकता है |

पारिस्थितिकी तंत्र के जैविकीय घटक

1.उत्पादक

2.उपभोगता

3.अपघटक

तथा अजैविकीय घटकों को तीन भागों मे बांटा गया है :

1.अकार्बनिक 2. कार्बनिक तथा 3. भौतिक वातावरण |

(अ ) जीवीय घटक : सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा अकार्बनिक पदार्थों, जल तथा कार्बन-डाई-डाइऑक्साइड को प्रयोग मे लाकर भोजन बनाते है जिनका उदाहरण हरे पौधे है। ये घटक उत्पादक कहलाते है। ये स्वपोषित अंश द्वारा उत्पन्न किया हुआ भोजन दूसरे जीव द्वारा प्रयोग मे लिया जाता है।

( ब )अजैविक घटक :सभी जीवधारियों के अस्तित्व को कायम रखने के लिये कुछ अजैविक पदार्थों की आवश्यकता होती है। इन अजैविक पदार्थों को ‘जीव निर्माणकारी पदार्थ ‘कहा जाता है।

(अ) जीवीय घटक

जैविक अथवा जीवीय घटकों को दो भागो मे विभक्त किया जाता है–

1. स्वपोषित घटक तथा 2.परपोषित अंश अब हम इन दोनों के बारे में समझेंगे | 

1. स्वपोषित घटक :

वे सभी जीव इसे बनाते है जो साधारण अकार्बनिक पदार्थों को प्राप्त कर जटिल पदार्थों का संश्लेषण कर लेते है अर्थात अपने पोषण हेतु खुद भोजन का निर्माण अकार्बनिक पदार्थों से करते है। ये सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा अकार्बनिक पदार्थों, जल तथा कार्बन-डाई-डाइऑक्साइड को प्रयोग मे लाकर भोजन बनाते है जिनका उदाहरण हरे पौधे है। ये घटक उत्पादक कहलाते है।

2. परपोषित अंश

ये स्वपोषित अंश द्वारा उत्पन्न किया हुआ भोजन दूसरे जीव द्वारा प्रयोग मे लिया जाता है। ये जीव उपभोक्ता अथवा अपघटनकर्ता कहलाते है।

कार्यत्मक दृष्टिकोण से जीवीय घटकों को क्रमशः उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक श्रेणियों मे विभक्त किया जाता है–

(A) उत्पादक

इसमे जो स्वयं अपना भोजन बनाते है जैसे हरे पौधे, वे प्राथमिक उत्पादक होते है तथा इन पर निर्भर जीव-जन्तु और मनुष्य गौण उत्पादक होते है क्योंकि वे पौधे से भोजन लेकर उनसे प्रोटीन, वसा आदि का निर्माण करते है।

(B) उपभोक्ता

ये तीन तरह के होते है-

(अ) प्राथमिक

जो पेड़, पौधों की हरी पत्तियां भोजन के रूप मे काम लेते है जैसे गाय, बकरी, मनुष्य आदि। इन्हे शाकाहारी कहते है।

(ब) गौण अथवा द्वितीय

जो शाकाहारी जन्तुओं अथवा प्राथमिक उपभोक्ताओं को भोजन के रूप मे करते है जैसे शेर, चीता, मेढ़क, मनुष्य आदि। इन्हे मांसाहारी कहते है।

(स) तृतीय

इस श्रेणी मे वे आते है जो मांसाहारी को खा जाते है जैसे साँप मेंढ़क को खा जाता है, मोर साँप को खा जाता है।

(C) अपघटक

इसमे प्रमुख रूप से जीवाणु एवं कवकों का समावेश होता है जो मरे हुए उपभोक्ताओं को साधारण भौतिक तत्वों मे विघटित कर देते है एवं फिर से वायुमण्डल मे मिल जाते है।

(ब) अजैविक घटक

सभी जीवधारियों के अस्तित्व को कायम रखने के लिये कुछ अजैविक पदार्थों की आवश्यकता होती है। इन अजैविक पदार्थों को जीव निर्माणकारी पदार्थ कहा जाता है।

पारिस्थितिकी तंत्र के अजैविक घटकों मे निम्न तीन घटक सम्मिलित होते है–

1. अकार्बनिक पदार्थ

अकार्बनिक पदार्थों मे जीवन के लिए अति आवश्यक तत्वों, जैसे– कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा फाॅस्फोरस आदि तत्व सम्मिलित है, जो स्थलीय व जलीय वातावरण मे उपस्थित रहते है। यह तत्व जीवधारियों की विभिन्न जैविक क्रियाओं मे सम्मिलित होकर अनेक आवश्यक कार्बनिक तथा शरीर निर्माणक पदार्थों का निर्माण करने मे सहयोग करते है। इन तत्वों को वृहद् पोषक तत्व भी कहा जाता है। इसके अलावा अजैविक घटको मे लोहा, मैंगनीज, मैगनीशियम, जस्ता तथा कोबाल्ट आदि तत्वों की जीवधारियों को अल्प मात्रा मे आवश्यकता पड़ती है। इसी कारण इन तत्वों को लघु पोषक तत्व कहा जाता है।

2. कार्बनिक पदार्थ

प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा आदि कार्बनिक पदार्थ वातावरण मे मुक्त अवस्था मे मिलते है, जबकि क्लोरोफिल, डी. एन. ए. तथा ए. टी. पी. ऐसे कार्बनिक पदार्थ है, जो जीवित कोशिकाओं के अंदर तथा बाहर भी मिलते है। यह कार्बनिक पदार्थ जैविक तथा अजैविक वस्तुओं को जोड़ने का कार्य करते है। समस्त कार्बनिक पदार्थ जीवों के मृत हो जाने पर विघटित होकर अपघटित पदार्थ या जीवांश मे बदल जाते है। यह जीवांश मृदा मे मिलकर ऐसे तत्वों का निर्माण करते है, जो स्वपोषी अथवा हरे पौधे के विकास के लिये आवश्यक होते है।

3. भौतिक वातावरण

अजैविक घटक के भौतिक वातावरण मे सूर्य, ऊर्जा, तापमान तथा आर्द्रता आदि सम्मिलित है, जो स्वपोषी पेड़-पौधे के भोजन निर्माण मे सहयोगी होते है। भौतिक वातावरण के इन अजैविक घटकों की परिवर्तनशीलता की पारिस्थितिकी तंत्र की सीमाओं के निर्धारण मे महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

वस्तुतः किसी पारिस्थितिकी तंत्र के भौतिक वातावरण के अजैविक घटक उस पारिस्थितिकी तंत्र के जैव समुदाय की प्रकृति को निर्धारित करते है। उदाहरण के लिये, आर्द्र क्षेत्रों मे हाथी व घड़ियाल जैसे जन्तु मिलते है, जबकि शुष्क मरूस्थलीय क्षेत्रों मे प्रमुख पशु ऊँट तथा भेड़ ही अपना अस्तित्व कायम रख सकते है।

परिस्थितिकी का महत्व

पारिस्थितिकी के सिद्धांतों के आधार पर प्राकृतिक समुदायों के क्रियात्मक से संबंधों को समझा जा सकता है।

1.इसके द्वारा विभिन्न क्षेत्र जैसे वन,मृदा ,सागर ,तालाब झील आदि के वातावरण एवं इनके जीवो के सह संबंधों का अध्ययन किया जाता है।

2.इसके सिद्धांतों न के वर्णन मे शस्य विज्ञान, फलोद्यान, पुण्योद्यान, वन, मत्स्य उत्पादन आदि के क्षेत्र में सफलता पूर्वक उपयोग किया जा रहा है।

3.इसके अध्ययन में प्रचलित भोज एवं मत्स्य आदि के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि करना संभव हो सका है।

4.इसके ज्ञान से ही अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग संभव हो सका है।

5.इसके अध्ययन से खतरनाक कीटों का जैविक नियंत्रण संभव हो सका है

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