संयुक्त परिवार में सामान्यतः उन सभी व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो एक सामान्य पूर्वज की सन्तान होते हैं। भोजन, पूजा और सम्पत्ति की दृष्टि से भी वे संयुक्त होते हैं। विभिन्न विद्वानों ने संयुक्त परिवार की परिभाषा इस प्रकार दी है।
संयुक्त परिवार का अर्थ(Definition of Joint Family)
भारतीय सामाजिक संरचना की एक विशेषता के रूप में यहां संयुक्त परिवार का प्राचीन काल से ही महत्व रहा है। हिन्दुओं के अलावा अहिन्दू लोगों में भी संयुक्त प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था पायी जाती रही है। सामान्यतः संयुक्त परिवार हिन्दुओं का विशिष्ट लक्षण माना जाता है।
वास्तव में, यह भारत में सर्वत्र ही प्रचलित है क्योंकि यह हिन्दुओं की भांति अनेक अहिन्दू समुदायों में भी पाया जाता है। वह पारिवारिक संगठन जिसका हम यहां वर्णन करना चाहते हैं, कुछ समुदायों में पितृसत्तात्मक है और कुछ में मातृसत्तात्मक अथवा मातृवशीय है।
भारत में परिवार का शास्त्रीय स्वरूप संयुक्त परिवार रहा है। ऐसा हिन्दुओं की कुछ पवित्र पुस्तकों में उल्लिखित है तथा सदियों पुरानी इस भूमि पर यह स्वरूप प्रचलित रहा है।
भारतीयों के लिए परिवार का वही अर्थ है जो अंग्रेजी के ‘ज्वाइण्ट फैमिली’ (Joint Family) से लिया जाता है, नाभिक परिवार भारतीय अवधारणा नहीं हैं। कर्वे का भी मत है कि “यहां (भारत में) परिवार का अर्थ संयुक्त परिवार से ही है।” भारतीय धर्म, दर्शन, अर्थव्यवस्था, जाति प्रथा, वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था यहां के सामाजिक जीवन के महत्वपूर्ण अंग हैं।
इन सभी में परिवार एक महत्वपूर्ण संस्था है। यह हिन्दू संस्कृति का संचालक सूत्र रहा है। हिन्दुओं में विवाह एवं परिवार को धर्म का अंग माना गया है। गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों का मूल कहा गया है। हमारे धर्मशास्त्रों में जहां एक ओर सन्यासी जीवन एवं संसार त्याग की बात कही गयी है, वहीं गृहस्थ जीवन की उपयोगिता के भी गुणगान किये गये हैं।
वैदिक काल से लेकर अब तक भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली रही है, चाहे इसके स्वरूप और संरचना में परिवर्तन आते रहे हों।
संयुक्त परिवार में सामान्यतः उन सभी व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो एक सामान्य पूर्वज की सन्तान होते हैं। भोजन, पूजा और सम्पत्ति की दृष्टि से भी वे संयुक्त होते हैं। विभिन्न विद्वानों ने संयुक्त परिवार की परिभाषा इस प्रकार दी है।
संयुक्त परिवार की परिभाषा
इरावती कर्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है जो सामान्यतः एक ही घर में रहते हैं, जो एक ही रसोई में बना भोजन करते हैं, जो सम्पत्ति के सम्मिलित स्वामी होते हैं व जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं और जो किसी न किसी प्रकार से एक-दूसरे के रक्त सम्बन्धी हो।”
आई. पी. देसाई के अनुसार, “हम उस गृह को संयुक्त परिवार कहते है जिसमें एकाकी परिवार से अधिक पीढ़ियों (अर्थात् तीन या अधिक) के सदस्य रहते हैं और जिसके सदस्य एक दूसरे से सम्पत्ति, आय और पारस्परिक अधिकारों तथा कर्तव्यों द्वारा सम्बद्ध हो।”
डॉ. दुबे के अनुसार, “यदि कई मूल-परिवार एक साथ रहते हों और उनमें निकट का नाता हो, एक ही स्थान पर भोजन करते हों और एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करते हों, तो उन्हें उनके सम्मिलित रूप में संयुक्त परिवार कहा जा सकता है।”
जौली के अनुसार, “न केवल माता-पिता तथा सन्तान, भाई तथा सौतेले भाई सामान्य सम्पत्ति पर रहते हैं, बल्कि कभी-कभी इनमें कई पीढ़ियों तक की सन्तानें, पूर्वज तथा समानान्तर सम्बन्धी भी सम्मिलित रहते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि “संयुक्त परिवार ऐसे परिवार हैं जिनमें कई पीढ़ी के लोग एक साथ निवास करते हैं अथवा एक ही पीढ़ी के सभी भाई अपनी पत्नियों, विवाहित बच्चों तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ सामूहिक रूप से निवास करते हैं जिनकी सम्पत्ति सामूहिक होती है।
परिवार के सभी सदस्य भोजन, उत्सव, त्यौहार और पूजन में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं और परस्पर अधिकारों और कर्तव्यों से बंधे होते हैं।”
संयुक्त परिवार के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम यहां उसकी विशेषताओं का उल्लेख करेंगे :
संयुक्त परिवार की विशेषता
संयुक्त परिवार के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम यहां उसकी विशेषताओं का उल्लेख करेंगे :
(1) सामान्य निवास-
संयुक्त परिवार में कई छोटे-छोटे परिवार होते हैं और इसके सदस्य एक ही निवास स्थान पर रहते हैं जिसे वे ‘बड़ा घर’ कहते हैं। प्रत्येक छोटे परिवार के लिए एक या दो कमरे अलग हो सकते हैं, परन्तु रसोई और पूजा, आदि के लिए सामान्य कमरा ही होता है।
जब कभी सदस्यों की संख्या अधिक हो जाती है तो कोई भी अपने बच्चों सहित पैतृक निवास के पास ही अलग घर बना कर रहने लगता हैं, किन्तु वे अपने को ‘बड़े घर’ के सदस्यों से अलग नहीं समझते। पूजा, त्यौहार एवं उत्सव, आदि के अवसर पर सभी सदस्य पैतृक घर में ही एकत्रित होते हैं।
(2) सामान्य रसोईघर –
संयुक्त परिवार के सभी सदस्य एक ही रसोईघर में बना भोजन करते हैं। कर्ता या अन्य बड़े पुरुष की पत्नी अन्य स्त्रियों की रसोई के कार्यों की देखभाल करती हैं। ऐसे परिवार में भोजन करने की भी कुछ प्रथाएं होती हैं जो बच्चों के समाजीकरण में योग देती हैं। किस अवसर पर क्या भोजन बनेगा, इसका निर्धारण भी परिवार की वयोवृद्ध स्त्री करती है।
(3) सामान्य सम्पत्ति –
संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों की एक सामान्य सम्पत्ति होती है जिसमें सभी जो एक पूर्वज के वंशज होते हैं, हिस्सेदार होते हैं। सभी सदस्य कमाकर परिवार के सामान्य कोष में देते हैं तथा जन्म, विवाह और मृत्यु, आदि के अवसर पर सामूहिक कोष में से ही खर्च किया जाता है।
(4) सामान्य पूजा या धार्मिक कर्तव्य —
हिन्दुओं में परमेश्वर के अनेक रूप माने गये हैं। प्रत्येक परिवार का कोई न कोई देवी-देवता होता है, पितर होते हैं जो उस परिवार के सदस्यों की रक्षा करते हैं। हिन्दुओं में धर्म एक महत्वपूर्ण तथ्य है। जीवन की सभी महत्वपूर्ण घटनाएं धार्मिक कार्यों से ही प्रारम्भ होती है। धार्मिक कार्य पैतृक सम्पत्ति में उत्तराधिकार की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
(5) रक्त सम्बन्ध से सम्बन्धित-
परिवार के सभी सदस्य परस्पर रक्त सम्बन्धी होते हैं किन्तु पत्नियां विवाह सम्बन्धी होती हैं। पितृसत्तात्मक परिवारों के सम्बन्धों की गणना पितृ पक्ष से की जाती है तथा मातृसत्तात्मक परिवार में मातृ-पक्ष से एक संयुक्त परिवार में तीन या अधिक पीढ़ी के लोग सामूहिक रूप से निवास करते हैं।
(6) बड़ा आकार –
एक संयुक्त परिवार में कई छोटे-छोटे परिवार होते हैं तथा तीन या अधिक पीढ़ियों के लोग साथ-साथ रहते हैं। अतः इसका आकार नाभिक अर्थात् एकाकी परिवारों से बड़ा होता है। कभी-कभी तो इसके सदस्यों की संख्या 50-60 तक हो जाती है।
(7) अधिकार और दायित्व –
देसाई का मत है कि संयुक्त परिवार के सदस्य परस्पर अधिकार और कर्तव्यों से जुड़े होते हैं। परिवार में छोटा व्यक्ति बड़ों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है तो बड़ा अपने अधिकारों का प्रयोग करता है।
बीमारी, वृद्धावस्था और दुर्घटना के समय सेवा सुश्रूषा की जाती है। जन्म, विवाह एवं मृत्यु के अवसर पर एक-दूसरे को आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता है।
(8) सामान्य सामाजिक प्रकार्य-
कापड़िया ने संयुक्त परिवार में सामान्य सामाजिक कार्यों को महत्वपूर्ण माना है, अर्थात् सभी सामाजिक कार्यों के लिए परिवार को एक व्यक्ति माना है और उसका प्रतिनिधि ही सारे परिवार की तरफ से भाग लेता है जो अधिकांशतः मुखिया होता है, चाहे वह जाति-पंचायत की हो या किसी के यहां विवाह, मृत्यु-भोज या उत्सव, आदि में सम्मिलित होना हो ।
(9) परिवार का मुखिया—
संयुक्त परिवार में कर्ता का मुख्य स्थान है। हिन्दुओं में वह परिवार का वयोवृद्ध पुरुष होता है। वही विवाह, उत्सव, सम्पत्ति तथा घर के महत्वपूर्ण एवं बाहरी कार्यों का निर्धारण करता है। उसकी आज्ञा का सभी पालन करते हैं एवं वही अनुशासन और एकता बनाये रखता है।
उसकी सत्ता निरंकुश है, परन्तु वह सभी के साथ प्रेम, समानता एवं स्नेह का व्यवहार करता है क्योंकि इसी आधार पर संयुक्तता बनी रहती है।
(10) सहयोगी व्यवस्था —
संयुक्त परिवार पारस्परिक सहयोग पर निर्भर है। इसके अभाव में सदस्यों का विभाजन हो जाता है। संयुक्त परिवार में ‘एक सब के लिए और सब एक के लिए’ वाला सिद्धान्त लागू होता है। इस तरह से यह एक समाजवादी व्यवस्था है।
(11) सदस्यों में एक निश्चित संस्तरण-
संयुक्त परिवार में सदस्यों को विभिन्न पद और अधिकार प्राप्त होते हैं। इन पदों में संस्तरण पाया जाता है। इस संस्तरण में सर्वोच्च स्थान कर्ता अर्थात् मुखिया का होता है। और उसके बाद कर्ता की पत्नी, फिर क्रमशः कर्ता के भाई, कर्ता के सबसे बड़े पुत्र, छोटे पुत्र-पुत्रियों, पत्नियों , आदि का होता है।
(12) तुलनात्मक स्थायित्व —
संयुक्त परिवार अन्य परिवारों की तुलना में अधिक स्थायी होता है क्योंकि इसकी सदस्य संख्या अधिक होती है। अतः कुछ सदस्यों के अलग हो जाने तथा मर जाने पर भी परिवार स्थायित्व बना रहता है। सदस्य परस्पर अपने दायित्वों का निर्वाह कर परिवार की स्थिरता को बनाये रखते हैं।
ऐसे परिवार में आर्थिक सहयोग के कारण भी स्थिरता बनी रहती है। साथ ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारिवारिक संस्कृति का हस्तान्तरण भी होता रहता है। अतः संयुक्त परिवार अन्य प्रकार के परिवारों की तुलना में अधिक स्थिर और स्थायी है |
संयुक्त परिवार के प्रकार
संयुक्त परिवार के प्रकार (FORMS OF JOINT FAMILY)
भारत में संयुक्त परिवार के अनेक रूप विद्यमान हैं। सत्ता, वंश, स्थान, पीढ़ियों की गहराई आदि की दृष्टि से परिवार के निम्नांकित रूप पाये जाते हैं :
(I) सत्ता, वंश एवं स्थान के आधार पर
(1) पितृसत्तात्मक, पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार:
उपर्युक्त प्रकार के संयुक्त परिवार में पिता ही परिवार का केन्द्र-बिन्दु होता है अर्थात् इस प्रकार के परिवारों में पिता का स्थान प्रमुख होता है तथा वंश परम्परा का चलन उसी के नाम के आधार पर होता है। ऐसे परिवारों में पत्नियां अपने पति के घर पर ही आकर निवास करती हैं एवं पुरुष पक्ष के तीन-चार पीढ़ियों के सदस्य एक साथ निवास करते हैं। ऐसे परिवारों में सम्पत्ति का हस्तान्तरण पिता द्वारा पुत्र को होता है। भारत में हमें अधिकतर हिन्दुओं में इसी प्रकार के संयुक्त परिवार देखने को मिलेंगे।
(2) मातृसत्तात्मक मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार —
इस प्रकार के परिवार में हमें माता का प्रमुख स्थान देखने को मिलेगा। परिवार की सम्पत्ति पर मां का स्वामित्व होता है एवं उत्तराधिकार माता से पुत्रियों को ही मिलता है। वंश परम्परा के चलन का आधार भी माता ही होती है अर्थात् ‘वंश नाम’ माता से पुत्रियों को हस्तगत होता है। इस प्रकार के संयुक्त परिवार में हमें एक स्त्री, उसके भाई, उसकी बहिनें तथा परिवार की सभी स्त्रियों के बच्चे निवास करते हुए मिलेंगे। नायर, गारो एवं खासी लोगों में इस प्रकार के परिवार पाये जाते हैं। नायर लोगों में मातृसत्तात्मक परिवार ही पाये जाते हैं।
(2) पीढ़ियों की गहराई के आधार पर
(अ) संयुक्त परिवार का उदग्र (Vertical) प्रारूप
इस प्रकार के संयुक्त परिवारों में एक ही वंश के कम से कम तीन पीढ़ियों के लोग एक साथ निवास करते हैं, जैसे दादा, पिता, अविवाहित पुत्री और पुत्र डॉ. आई. पी. देसाई ने ऐसे ही परिवार को संयुक्त परिवार माना है।
(ब) संयुक्त परिवार का क्षैतिज (Horizontal) प्रारूप
इस प्रकार के परिवारों में भाई का सम्बन्ध अधिक महत्वपूर्ण है अर्थात् ऐसे परिवारों में दो से अधिक भाइयों के एकाकी परिवार एक साथ निवास करते हैं।
(स) संयुक्त परिवार का मिश्रित (Mixed) प्रारूप
संयुक्त परिवार का एक रूप उपर्युक्त दोनों प्रकार के परिवारों का मिश्रित रूप है जिसमें दो या तीन पीढ़ियों के सभी भाई सम्मिलित रूप से निवास करते हैं |
संयुक्त परिवार के लाभ और महत्व
किसी भी संस्था का एक लम्बे समय से प्रचलन इस बात का द्योतक है कि यह संस्था समाज के लिए उपयोगी है। यह संस्था प्रमुखतया कृषि प्रधान एवं ग्रामीण समाजों में तो बहुत ही उपयोगी रही है। भारतीय समाज में संयुक्त परिवार महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। संयुक्त परिवार में रहने के लाभ इस प्रकार हैं:
(1) शासन सम्बन्धी –
भारतीय गांवों का सामाजिक संगठन जटिल नहीं है यहां पर व्यक्ति की अपेक्षा परिवार को अधिक महत्व दिया जाता है और परिवार का प्रतिनिधित्व परिवार का ‘कर्ता’ करता है। इस प्रकार में कर्ता परिवार का शासक है, कर्ता का परिवार पर एकाधिकार होता है। परिवार के समस्त कार्य उसी के द्वारा निर्देशित होते हैं।
(2) धार्मिक कार्य —
प्रत्येक परिवार की अपनी कुल देवी या देयता होते हैं और उसके गुरु अथवा पुरोहित होते हैं। सभी सदस्यों का उनमें अगाध विश्वास होता है। ये यथायोग्य उनकी पूजा-उपासना करते है। इस प्रकार आध्यात्मवाद को प्रोत्साहन मिलता है। धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति तथा त्यौहारों व धार्मिक उत्सवों को मनाने हेतु सभी सदस्यों का सम्मिलन होता है।
(3) मार्ग दर्शन –
संयुक्त परिवार में सभी प्रकार के स्त्री-पुरुष निवास करते हैं। परिवार में वयोवृद्ध व्यक्तियों का विशेष स्थान होता है क्योंकि उनके जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आये होते हैं और वे युवा सदस्यों की अपेक्षा अधिक अनुभवी होते हैं। वे अपने अनुभवों के आधार पर भावी पीढ़ी को निर्देशित करते है। विकट परिस्थिति में जब युवा सदस्य अपना धैर्य खो बैठते हैं और निराशा के घोर अन्धकार में गोते लगाते हि तब ये अनुभवी सदस्य ही उनके पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करते हैं।
(4) मनोरंजन-
संयुक्त परिवार में सदस्यों की अधिकता के कारण यह मनोरंजन की सस्ती व पर्याप्त स्थली है। सारे समय परिवार में मनोरंजन का वातावरण व चहल-पहल बनी रहती है। कर्वे कहती हैं कि संयुक्त परिवार में हर समय कुछ-न-कुछ होता ही रहता कभी किसी लड़के या लड़की की शादी है तो कभी नामकरण संस्कार का उत्सव हो रहा है। कभी नयी दुल्हन से पहली बार भोजन बनवाने की रस्म करवायी जा रही है तो कभी परिवार में व्रत और श्राद्ध है तो कभी किसी का जन्म दिन मनाया जा रहा है |
(5) बच्चों के लालन-पालन में योगदान —
संयुक्त परिवार बच्चों के लालन-पालन हेतु एक उचित स्थान है। संयुक्त परिवार में वयोवृद्ध स्त्री-पुरुष बच्चों की देखरेख में सहयोग प्रदान करते हैं तथा उनके समाजीकरण एवं प्रशिक्षण में योग देते हैं। सद्गुण, सेवा, त्याग, सहानुभूति, प्रेम, सहयोग और परोपकार, आदि भावनाओं को बच्चा परिवार में रहकर ही सीखता है।
(6) धन का उचित उपयोग —
संयुक्त परिवार में एक सामान्य कोष होता है। सामान्य कोष में से ही सदस्यों की आवश्यकता के अनुसार चाहे कोई सदस्य कमाता हो अथवा नहीं, धन खर्च किया जाता है। कर्ता के नियन्त्रण के द्वारा अनावश्यक खर्ची से बचा जाता है।
(7) सम्पत्ति के विभाजन से बचाव —
संयुक्त परिवार में चूंकि सभी सदस्य सम्मिलित रहते हैं, इसलिए वहां सम्पत्ति के विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस प्रकार संयुक्त सम्पत्ति का उपयोग व्यापार अथवा किसी कार्य में करके सम्पत्ति में और अधिक बढ़ोतरी की जा सकती है |
(8) श्रम विभाजन –
संयुक्त परिवार में श्रम विभाजन दो आधारों पर किया जाता है प्रथम, यौन के आधार पर एवं द्वितीय, आयु के आधार पर। परिवार के पुरुषों पर बाह्य कार्य एवं परिवार की स्त्रियों पर आन्तरिक कार्यों की जिम्मेदारी होती है। परिवार के सभी सदस्य अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार न कोई कार्य अवश्य ही करते हैं।
(9) संकट का बीमा—
प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सुख के साथ-साथ दुःख भी पाये जाते हैं। ये दुःख किसी भी प्रकार के हो सकते हैं, जैसे कोई दुर्घटना, बीमारी, शारीरिक अथवा मानसिक अस्वस्थता, नौकरी छूट जाना तथा वैधव्य, आदि।
इन सभी अवस्थाओं में संयुक्त परिवार एक सहारे के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। संयुक्त परिवार अनाथ बच्चों, विधवाओं तथा वृद्ध व्यक्तियों की शरण-स्थली है जो अपने सदस्यों को यथासम्भव आर्थिक सुरक्षा प्रदान कर चिन्ता से मुक्ति दिलाता है |
(10) संस्कृति की रक्षा—
संयुक्त परिवार में ही वह प्रेरक शक्तियां विद्यमान रही हैं जो व्यक्ति को प्राचीन प्रथाओ एवं परम्पराओं, रूढ़ियों तथा सामाजिक मान्यताओं के अनुसार आचरण करने को प्रेरित करती हैं।
भारतीय संयुक्त परिवार परिवर्तन और नवीनीकरण के प्रारम्भ से ही विरोधी रहे हैं, इसलिए इन्होंने इन सांस्कृतिक विशेषताओं को ज्यों-का-त्यों भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित कर संस्कृति की स्थिरता बनाये रखने में अपना विशेष योग दिया है।
(11) अनुशासन एवं नियन्त्रण—
संयुक्त परिवार में कर्ता का प्रमुख स्थान है। परिवार के समस्त कार्य उसी के द्वारा निर्देशित होते हैं। अतः परिवार के सभी सदस्य उसके नियन्त्रण में रहते हैं और इस प्रकार परिवार में अनुशासन भी बना रहता है। कर्ता अपनी शक्तियों के माध्यम से परिवार के सदस्यों के स्वच्छन्द आचरण पर रोक लगाता है।
(12) राष्ट्रीय एकता एवं देश-सेवा
-संयुक्त परिवार की संरचना ही कुछ इस प्रकार की है कि व्यक्ति उसमें स्वतः ही त्याग, प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, आदि सीखता है। इन भावनाओं के कारण राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है।
संयुक्त परिवार में रहकर कुछ सदस्य अपना जीवन देश-सेवा में भी लगा सकते हैं क्योंकि परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने से वे पारिवारिक दायित्वों से मुक्त हो सकते हैं। वे सार्वजनिक कल्याणकारी कार्य, समाज सेवा और देश-सेवा के कार्य में अपने को लगा देते हैं।
(13) सामाजिक सुरक्षा—
संयुक्त परिवार व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है, भारत में हिन्दुओं में बाल-विवाह के प्रचलन के कारण जब तक वर-वधू आत्मनिर्भर नहीं होते तब तक उनका भरण-पोषण संयुक्त परिवार द्वारा ही किया जाता है।
संयुक्त परिवार अनाथों, वृद्धों, और विधवाओं की एक उत्तम शरण-स्थली है जो उन्हें उचित सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है। संकटकालीन परिस्थितियों में परिवार के सदस्यों की देख-रेख व भरण-पोषण का कार्य करना संयुक्त परिवार का नैतिक दायित्व है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संयुक्त परिवार अपने आप में एक ऐसा समुदाय है जो एक व्यक्ति की सभी भौतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
संयुक्त परिवार के दोष और नुकसान
संयुक्त परिवार के अनेक लाभ होते हुए भी कुछ दोषों के कारण यह व्यवस्था दिनों-दिन कमजोर जा रही है। इसके प्रमुख दोष इस प्रकार हैं।
(1) अकर्मण्य व्यक्तियों की वृद्धि —
संयुक्त परिवार में सभी व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार होता है चाहे व्यक्ति काम कर रहा है अथवा नहीं, उसका भरण-पोषण होता है और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। ऐसी दशा में बेकार व्यक्ति कोई कार्य करने को आतुर अथवा उत्सुक नहीं होता है। यहां परिश्रम करने वाले व्यक्ति को कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं मिलता है। इसलिए वह भी अपने कार्य के प्रति उदासीन होने लगता है। इस प्रकार उसकी कार्यकुशलता का ह्रास होता है।
(2) व्यक्तित्व के विकास में बाधक—
संयुक्त परिवार व्यक्तित्व के विकास में बाधक सिद्ध हुआ है क्योंकि यहां प्रतिभाशाली व मूर्ख, कर्मण्य व अकर्मण्य, आदि सभी के साथ समान व्यवहार होता है। परिवार है वयोवृद्ध व्यक्तियों के कठोर नियन्त्रण व अनुशासन के कारण प्रतिभाशाली व्यक्ति न तो अपने विचारों का प्रकट ही कर सकता है और न ही अपनी योग्यता का समुचित उपयोग कर सकता है।
(3) स्त्रियों की दुर्दशा —
संयुक्त परिवार में स्त्री एक दासी के समान होती है, उसका जीवन खाना बनाने बच्चों को जन्म देने, उनकी देखभाल करने एवं अन्य सदस्यों की सेवा में ही व्यतीत होता है। उसे मनोरंजन का साधन समझा जाता है। उसे सास एवं ननद के उलाहने, गालियां एवं प्रताड़ना का शिकार बनना पड़ता है, शिक्षा एवं बाह्य जगत से उसका कोई नाता नहीं रह पाता है।
(4) कलह का केन्द्र –
संयुक्त परिवार में बच्चों, सम्पत्ति एवं स्त्रियों के व्यवहार को लेकर आये दिन कलह होती रहती है। इससे परिवार की शान्ति खतरे में पड़ जाती है। व्यक्तिगत व्यय एवं बच्चों को लेकर स्त्रियों में आपसी द्वेष एवं मनमुटाव पैदा हो जाता है और पारिवारिक सहयोग एवं स्नेह, कटुता एवं संघ में बदल जाता है। संघर्ष एवं कलह का अन्तिम परिणाम होता है-परिवार का विभाजन ।
(5) अधिक सन्तानोत्पत्ति—
संयुक्त परिवार में न तो प्रत्येक सदस्य का स्वावलम्बी होना आवश्यक और न ही किसी को अपने भरण-पोषण हेतु चिन्ता करने की आवश्यकता है। संयुक्त परिवार अपने प्रत्ये सदस्य का समान रूप से भरण-पोषण करता है।
इसलिए व्यक्ति अपने धार्मिक विधि-विधानों की पूर्ति हेतु स्वर्ग-प्राप्ति की लालसा में पुत्र प्राप्ति की कामना में कई पुत्रियों को जन्म देता है। इस प्रकार सन्तानों संख्या में वृद्धि होती है जिसका भार परिवार को उठाना पड़ता है।
(6) कुशलता में बाधक—
सयुक्त परिवार ने कर्मण्य व्यक्ति का शोषण तथा अकर्मण्य व्यक्ति को प्रोत्साहन दिया है। संयुक्त परिवार में सभी व्यक्तियों के हितों का ध्यान रखा जाता है एवं समान रूप से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है, चाहे कोई व्यक्ति कमाता हो अथवा नहीं।
परिणामस्वरूप कमाने वाले व्यक्ति पर अधिक भार होने तथा उसको प्रोत्साहन न मिलने के कारण उसकी कार्य कुशलता में कमी आती है, उसके स्वास्थ्य का ह्रास होता है तथा उसका जीवन स्तर निम्न होता चला जाता है।
(7) गतिशीलता में बाधक –
व्यक्ति की परिवार के प्रति एक गहन आसक्ति होती है। व्यक्ति के मन में यह धारणा होती है कि “आंख से दूर हुए तो दिल से भी दूर हुए।” इसलिए कोई भी व्यक्ति परिवार से बाहर अन्यत्र किसी स्थान पर जाकर नौकरी अथवा व्यवसाय करना पसन्द नहीं करता है, चाहे वह घर में बेकार ही क्यों न बैठा हो।
(8) गोपनीय स्थान का अभाव —
संयुक्त परिवार में सदस्यों का जमघट देखकर एक छोटे-मोटे मेले का आभास होने लगता है। वहां शान्ति और एकान्त का नितान्त अभाव होता है। ऐसी परिस्थितियां विवाहित जोड़ों के लिए बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। ऐसी परिस्थिति में पति-पत्नी एक-दूसरे के सहयोगी होने की अपेक्षा अजनबी अधिक होते हैं।
(9) कर्ता की स्वेच्छाचारिता-
परिवार में कर्ता का मुख्य स्थान होता है। परिवार के समस्त कार्य उसी के द्वारा निर्देशित होते हैं एवं कर्ता की इच्छा ही सर्वोपरि होती है। कर्ता की इच्छा के समक्ष परिवार के अन्य सदस्यों की इच्छाओं का दमन हो जाता है। इस प्रकार कर्ता परिवार का निरंकुश शासक होता है।
(10) सामाजिक समस्याओं के पोषक-
संयुक्त परिवार अनेक रूढ़िवादी परम्पराओं तथा अनुपयोगी धार्मिक कर्मकाण्डों की स्थली रहा है। संयुक्त परिवार के माध्यम से कई समाजव्यापी समस्याएं जैसे बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, विधवा विवाह पर रोक, पर्दा प्रथा, जाति अन्तर्विवाह, जनसंख्या की समस्या, अशिक्षा, जातिगत भेदभाव में वृद्धि, स्त्रियों का शोषण, आदि उत्पन्न हुई हैं, यद्यपि इन समस्याओं के और भी अनेक कारण रहे हैं।
(11) शुष्क एवं नीरस वातावरण-
संयुक्त परिवार के सदस्यों की अधिकता के कारण उनके पारस्परिक सम्बन्धों में दृढ़ता व आत्मीयता का अभाव दृष्टिगोचर होता है। परिवार के सदस्यों के मधुर सम्बन्ध औपचारिकता में परिवर्तित हो रहे हैं। अब संयुक्त परिवार में मनमुटाव व पारिवारिक द्वेष की भावना अधिक प्रबल होती जा रही है। ऐसी स्थिति में घर के वातावरण का शुष्क और नीरस होना स्वाभाविक ही है।
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